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दर्प - लेखनी प्रतियोगिता -09-Mar-2022

निकला था एक दिन सुबह सैर पर
सोचा कि मिल जाए कहीं दर्प अगर
पूछ लूँगा कहाँ बनाया हुआ है घर
ढूँढते-ढूँढते अचानक आया नज़र।

मैंने कहाँ दर्प भैया कहाँ थे तुम 
लगता है कहीं पर हो गए थे गुम
आज मिले हो तो हो बड़े गुमसुम
न सुनाया अपने बड़प्पन के गुण।

दर्प बोला भैया मेरे हैं दो रूप मगर 
एक करे है निवास अमीरों के दर 
नाम देते हैं गरीब मानव उसे घमंड
दूसरों को पहुँचा दर्द उसे मिले ठंड।

दूजे रूप की बड़ी अनोखी अदा 
किंतु पाता है सर्वत्र सम्मान सदा
नाम दिया है लोगों ने प्यार से गर्व
है निर्धन खुशी से मनाता हर पर्व।

कहा दर्प ने एक बात समझ न आई
झुकाए न सर जो, इज्जत उसने पाई
खून चूसकर जिसने की गाढ़ी कमाई
क्यों पाया प्रतिपल अपमान वो भाई।

मैं बोला किस काम की है वह कमाई
अपनों की विपदा पर न पड़ी दिखाई
जो ईर्ष्या की भावना मन में उपजाई
जो कभी समझने ना दे  पीर पराई।

जो पहुँचाए दर्द, आदर वह कैसे पाए
हो जाए जिसे घमंड वह सदा पछताए
अपने उनके होते वे जो करे चाटुकारी
खोटी बातों में मारें हँसी की पिचकारी।

गर्व भले ही ना झुके अन्याय के समक्ष 
पर वह कभी लेता नहीं गलत का पक्ष
दर्प बोला अब बात ये समझ में आई
गर्व को माँ भी क्यों बेटे हेतु अपनाई।

डॉ. अर्पिता अग्रवाल
नोएडा, उत्तरप्रदेश

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11 Comments

Abhinav ji

11-Mar-2022 08:49 AM

Nice

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Dr. Arpita Agrawal

11-Mar-2022 02:23 PM

Thanks a lot Abhinav ji😊

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Seema Priyadarshini sahay

10-Mar-2022 04:12 PM

बहुत खूबसूरत

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Dr. Arpita Agrawal

11-Mar-2022 12:29 AM

शुक्रिया सीमा जी

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Shrishti pandey

10-Mar-2022 07:38 AM

Nice

Reply

Dr. Arpita Agrawal

10-Mar-2022 08:30 AM

Thanks a lot Srishti ji

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